समाज की संवेदनहीनता

समाज की संवेदनहीनता
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-राजेश बैरागी-
लॉकडाउन के लंबे असर में प्रवासी मजदूरों की संकटपूर्ण घर वापसी की यात्रा बड़ी त्रासदी बन गई है। लाखों की संख्या में मजदूर पत्नी व बच्चों के साथ पैदल,वैध और अवैध सवारियों से देश के एक छोर से दूसरे छोर पर अपने घर पहुंचने के लिए निकले हुए हैं। रास्ते में दुर्घटनाओं के चलते अनेक मजदूरों की मौत भी हो गई है।सारा दोष केंद्र और राज्य सरकारों का निकाला जा रहा है। बेशक सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से मुकर नहीं सकतीं। उनका मुंह काला हुआ है। परंतु हमेशा मजदूरों के हक की आवाज उठाने वाली मजदूर यूनियन इस संकट की घड़ी में एकदम अदृश्य हो गयी हैं। श्रमिक संगठनों की असल भूमिका अभी देखी जानी चाहिए। श्रमिकों की सकुशल घर वापसी के लिए सरकार को कोसने वाले राजनीतिक विपक्षी दल अपने धर्म पर हैं। उन्हें सरकार की आलोचना करनी है और वे कर रहे हैं। हालांकि श्रमिकों की मदद के लिए उन्हें चुनाव आयोग की अनुमति की आवश्यकता नहीं है परंतु आलोचना का कर्तव्य निभाने से भी काम चल जाता है। यह आश्चर्यजनक से ज्यादा संवेदनहीनता का मामला है कि सड़कों पर औरतों, दुधमुंहे बच्चों के साथ पैदल यात्रा कर रहे मजदूरों को लईया,चना, गुड़ या पानी देने वाला कोई नहीं है। बीमारी लंबी हो जाती है तो सहानुभूति सिकुड़ जाती है।लोग संभवतः मौत के भय से उबर गए हैं। उन्हें अपनी धन संपत्ति को सहेजने का लालच जाग गया है। इसलिए बेहाल मजदूर सड़कों पर नजर सीधी रखकर चल रहे हैं। उन्हें सरकार ने निराश किया,अब समाज ने भी मुंह मोड़ लिया है।